- राहुल देव (वरिष्ठ पत्रकार)
"क्या आपको इस बात का एहसास होता है कि आप किसी प्रक्रिया का हिस्सा बनकर किसी एक से इतनी ज़्यादा मोहब्बत करने लगते है कि आप किसी दूसरे से नफ़रत करने के लिए बाध्य कर दिए (हो) जाते है।"
- रविकांत (इतिहासकार, लेखक, अनुवादक)
"सिर्फ भाषा अरक्षित नहीं है, हम सब अरक्षित है। वो सब अस्मिताएं जो हाशिए पर है, वे सब अरक्षित है। भाषा को फ़र्क नही पड़ता, हमें फ़र्क पड़ता है क्यूंकि इस भाषा में समावेशी होने की प्रवृत्ति बहुत थोड़ी है। आज भी फेमिनिज्म को ख़ारिज कर के इस भाषा में काम चल जाता है, कोई ये नहीं सोचता है कि अब इतनी सारी स्त्रियां हिंदी में लिखने आ गई है, तो इसे एक नई आलोचना पद्धति और एक नए वैकल्पिक दृष्टिकोण की ज़रूरत होगी, नए शब्दों की ज़रूरत होगी। कितनी मज़ेदार बात है आप अंग्रेज़ी भाषा को उपनिवेशवादियों और साम्राज्यवादियों की भाषा का दर्जा देते है लेकिन पिछले कुछ सालों में इस भाषा ने अपने आपको जितना इंक्लूसिव बनाया है नए शब्दों को रचते हुए, हम उससे दूर-दूर तक भी कहीं दिखाई नहीं देते है। इतने सारे शब्द है, इतनी सारी अस्मिताएं है जिनका हिंदी भाषा में प्रतिनिधित्व ही नहीं है। हम इस भाषा का वो ढांचा ही नहीं बना पाए है कि उन तमाम अस्मिताओं की अभिव्यक्ति करने में आसानी हो।"
- सुजाता (प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय)
"एक इंसान अपनी ज़बान के पीछे छिपा हुआ होता है। हम भाषा को लेकर नहीं ख़ुद को लेकर कहीं खो गए है। हम ख़ुद को व्यक्त नहीं कर पा रहे है क्यूंकि हमने किसी भी भाषा को ठीक से नहीं सीखा है। आज ये कहा जाता है कि ये पीढ़ी सोच नहीं पाती, मुझे ऐसा लगता है ये पीढ़ी व्यक्त नहीं कर पाती। हर दूसरा शब्द मतलब होता है, 'मतलब' दो नदियों के बीच में एक पुल के समान है ताकि हम एक विचार से दूसरे विचार की तरफ़ पार कर जाएं। मगर नदियां सूख गई है, पुल रह गया है।"
- सायमा (रेडियो जॉकी)
इस सत्र "हिंदी को फ़र्क पड़ता है!" का आयोजन 14 सितम्बर 2023 को राजकमल प्रकाशन और इंडिया हैबिटेट सेंटर द्वारा मासिक विचार-मंथन श्रृंखला के पहले सत्र के रूप में किया गया था।
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