Thursday, July 31, 2025

केसव सुनहु प्रबीन: मुगलकालीन हिंदी साहित्यिक परिवेश—लोकार्पण


PROF. TANUJA KOTHIYAL

• In the 1980s-90s, the idea of region and regionalism started emerging in the history-writing, and such historiographical trends emerged and became prominent in CHS (Centre for Historical Studies), JNU, then as well. However, until then also, regions were considered as sub-categories of the empire. And we were encountering ourselves with such questions as what builds regions actually—is it area or is it language?

• Regional sources were not even considered as a source to write Empire Histories. And there were assumptions that the empire reaches regions, but regions don’t reach the empire, and in this approach lies a methodological problem.

• 15-18वीं शताब्दी का दौर वह दौर है जब कला और साहित्य को दरबारों से आश्रय मिल रहा था। इस समय ब्रजभाषा अपने चरमोत्कर्ष पर थी बावजूद इसके कि यह ज़बान दरबारी ज़बान नहीं थी। ब्रजभाषा में लिखित साहित्य सिर्फ सौंदर्य तक अपने को सीमित नहीं रखता। इसमें लिखा साहित्य ना प्रशंसा का साहित्य है, ना विरोध का; हर प्रकार के रजिस्टर में ब्रजभाषा ख़ुद को ढाल लेती थी। ब्रज को हम कहीं भी बना सकते थेहै।

• Regional archival sources change our perspective with regard to the historiography. Recently, we have seen among the scholars a shift in taking a central point of history writing, moving from "empire centric" to "regional centric." Such changes in the historical trends bring to light the fact that things need to be seen with respect to the relationship between region and empire, apart from judging them only through religious binaries. Empires appear distinct when viewed through the lens of regional archives. Such approaches offer new tools and methods along with adding new perspectives to look at systems.




PROF. SUDHISH PACHAURI

• 16-18वीं शताब्दी के रीतिकाल को मांपने की मेथोडॉलॉजी पश्चिम में इजात हुई जिसके सौंदर्यबोध को पश्चिमी मॉडल, रोमांटिसिज़म (जो पश्चिम में उभरा ही यहाँ के संसाधनों को लूटने के बाद), और विक्टोरिया एस्थेटिक्स के आधार पर पीटा गया। इसी के संदर्भ में दलपत जी हमारे समक्ष यह सवाल रखते है कि उन्हीं मापदंडों का इस्तेमाल कर हम उस साहित्य को पढ़ते है; तो किन कारणों के चलते वे सभी मापदंड यहाँ की भूमि पर नहीं तैयार हो पाए? और यह सवाल यहाँ के अकादमिक जगत और बुद्धिजीवियों के लिए भी है।

• एलिसन बुश का काम हमारे लिए और खासतौर से हिंदी जगत के लिए बहुत बड़ा एहसान है। उनका आग्रह ही इस बात पर था कि रीतिकाल को उसके ही उपादानों से समझा जाएं ना कि रोमांटिसिज़म और विक्टोरिया एस्थेटिक्स से निकले हुए मॉडल्स के आधार पर, जिस बात को समझने में हमने बहुत देरी कर दी। साथ ही साथ यह पुस्तक इस ओर भी इशारा करती है कि इतिहास के प्रति हमारा नज़रिया क्या और कैसा होना चाहिए।

• रीतिकाल का अवमूल्यन इसके साहित्य को लेकर पश्चिमी समझ का परिणाम था। सही समझ को विकसित कर पाना तभी मुमकिन है जब इस काल की कविता और कवियों द्वारा गढ़ें गए मानकों के ज़रिए ही इस साहित्य का पाठ किया जाएं।

• केशवदास द्वारा रचित "जहांगीर जस चंद्रिका" केवल जहांगीर के यश का गुणगान ही नहीं करती बल्कि इसका एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि यह कृति पुरुषार्थ और भाग्याधीनता के बीच गहरी बहस को रेखांकित भी करती है जिसमें जहांगीर पुरुषार्थ का प्रतीक है और शासित जनता भाग्याधीनता का।

केशवदास उन कवियों में से है जो चुनौतियों को स्वीकार करना पसंद करते थे। अगर तत्कालीन समाज व्यंजना में अपनी बात कहता था तो यह इसके बिल्कुल उलट अभिधा में कहते थे।



PROF. DALPAT RAJPUROHIT

मुझे याद है शैल्डन पोलॉक ने यह कहा था कि decolonisation तब तक नहीं हो सकता है जब तक हम यह नहीं जानेंगे कि औपनिवेशिक काल से पहले भारतीय साहित्यिक और चिंतन मीमांसा क्या थी।

Also, what we should not forget that the western literary culture was developed after having interactions and dialogues with other literary cultures including Japanese, Russian, Italian, French and so on like Keshavadasa interacted with Sanskrit.

• एलिसन बुश अपनी किताब के ज़रिए यही बताती है कि रीतिकाल को पढ़ने के लिए शब्दावली, मानदंड और अवधारणाएं क्या होनी चाहिए।

PROF. PURUSHOTTAM AGRAWAL

• एलिसन बुश भारतीय चिंतन परंपराओं और गैर भारतीय चिंतन परंपराओं से डायलॉग करती है (engage करती है), उसे डिस्मिस नहीं करती।

• एक बार उन्होंने IIC में व्याख्यान दिया था, जो बाद में IIC Journal में भी छपा जिसका एक उद्धरण मैं आज तक नहीं भूला पाया हूँ जब वे यह कहती है—

"Hindus were also writing histories but they were doing in Hindi."
 

इस संदर्भ में लाल कवि द्वारा रचित "छत्रप्रकाश" इसका जीता जागता उदाहरण है जो सिर्फ़ साहित्यिक कृति ही नहीं बल्कि एक इतिहास का ग्रन्थ भी है।

• एलिसन बुश का हवाला देते हुए प्रो. अग्रवाल एक प्रश्न को रेखांकित करते है कि ऐसी क्या ऐतिहासिक परिस्थितियां होती है कि कुछ संस्कृतियां अपनी साहित्यिक परंपरा सहेज कर रखती है और कुछ भुला देती है।

गायत्री स्पीवाक ने एक जगह लिखा है कि—
Post-colonial intellectuals only respond. और उनका यह उद्धरण एक हद तक बिल्कुल सही है। लेकिन इसी संदर्भ में साथ ही हमें ये हरगिज़ नहीं भूलना चाहिए that India, Africa including other colonies have suffered colonization which Britain did not.

• हिंदुस्तान के अतीत और वर्तमान को तब तक नहीं समझ सकते है जब तक आप गैर संस्कृत, अंग्रेज़ी बोलने लिखने वालो को ध्यान और इज़्ज़त से नहीं सुनेंगे।

रामचंद्र शुक्ल और अन्य विद्वानों के प्रति डिस्मिसिव व्यवहार को रेखांकित करते हुए प्रो. अग्रवाल व्यंग्य करते हुए कहते है कि आजकल ब्राह्मणवादी कहे बिना आप प्रगतिशील का तमगा पा नहीं सकते। ज़रूरी है कि अपने पुरखों के काम को सीधे तौर पर खारिज करने के बजाए उनके प्रति आदर का भाव रख भी उनके काम का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।

• वर्नाकुलर की बात सभी करते है लेकिन हमारा वर्नाकुलर के प्रति रवैया आज भी कैसा है? जो स्थिति पहले थी, वही अभी भी बनी हुई है।

• नामवर सिंह द्वारा रचित "कविता के नए प्रतिमान" सिर्फ़ नई कविता को स्थापित करने के लिए ही नहीं लिखी गई बल्कि यह पुस्तक बीसवीं सदी में चल रही साहित्यिक, सांस्कृतिक बहसों की किताब है। लेकिन ऐसी पुस्तकों को हम संज्ञान में नहीं लेते।

• Colonial intellectuals की समस्या यह रही कि भारतीय समाज और इतिहास के संदर्भ में जो धारणाएं वो गढ़ रहे थे, वे सभी व्याख्याएं यहां मौजूद ज्ञान के अनुकूल नहीं थी। इस बात को हम इस उदाहरण से समझ सकते है कि पूर्व ब्रिटिश काल में भारत का किसी भी तरह के अखिल भारतीय बोध को औपनिवेशिक काल में स्वीकार नहीं किया जा रहा था जबकि संस्कृत, अन्य लोकभाषाओं के साहित्य और लोकस्मृति में राजनैतिक एकता की परिकल्पना भले न हो लेकिन विभिन्न क्षेत्रों के बीच संवाद और संघर्ष की स्मृतियां ज़रूर मौजूद थी। यह सब संवेदना विच्छेद और किसी समाज की sensibilities को न समझ पाने की स्थिति का परिणाम था।

साथ ही साथ इस बात का भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि राष्ट्र की जो अवधारणा यूरोप में विकसित हुई जो एक धर्म, एक भाषा, एक नस्ल पर आधारित था, उसे भारतीय संदर्भ में नहीं देखा जा सकता, जहां अनुभव के आधार पर यहां के नेतृत्व ने इस अवधारणा का अनोखे तरीके से विस्तार किया। बौद्धिकों से ले कर राजनेताओं ने ऐसे भारतीय राष्ट्र की कल्पना की जो अनेक भाषाओं, धर्मों, संस्कृतियों के सह-अस्तित्व और संवाद पर आधारित हो (Imagining the Nation).

• Prof. Agrawal ended his talk with these words— इतिहास से मुक्ति असंभव है। We must have a sense of history.


Vani Prakashan has published the Hindi translation of "Poetry of Kings" under the title "केसव सुनहु प्रबीन: मुगलकालीन हिंदी साहित्यिक परिवेश." The book originally written in English by Allison Busch. Reyazul Haque has done the Hindi translation, and Dalpat Rajpurohit has written its introduction.

This inaugural program of the book launch of "केसव सुनहु प्रबीन: मुगलकालीन हिंदी साहित्यिक परिवेश" was conducted by Vani Prakashan at the India International Centre on 30-07-2025.

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